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Wednesday, November 18, 2015

एक पुरानी रचना गीत बन गयी 

बद अख़लाक़ 

बिगाड़ी तुमने नेमतें, 
  फिर शोर किसलिए ?   
उजाड़ी तुमने अराइशें,
  फिर शोर किसलिए ?  

रोज़ फैलती है पर्वतोँ पर,-
---   धूप की चादर !  
बिखेरी तुमने कालिखें, 
 चहुँ ओर किसलिए 
उजाड़ी तुमने अराइशें,
  फिर शोर किसलिए ?  

एहले चमन न छोड़ा
 अब कौम हो उजाड़ते !  
कुचले तुमने इंसान,
 बरजोर किसलिए 
उजाड़ी तुमने अराइशें,
  फिर शोर किसलिए ?  
  
मर्दों के लिए औरतें , 
  औरतों के लिए मर्द!    
खेलते ले खिलौने सा,
ले पतंग डोर किसलिए 
उजाड़ी तुमने अराइशें,
  फिर शोर किसलिए ?

ऊँटों पे लादे मासूम, 
--चकलों पे ख़वातीन! 
कितने बनाए मनु बम, 
घनघोर किसलिए 
उजाड़ी तुमने अराइशें,
  फिर शोर किसलिए ?

कोठे पर चल के जाना, 
    ईमान बेच देना ! 
हर इल्ज़ाम दूसरे सर, 
फिर सिरमौर किसलिए 
उजाड़ी तुमने अराइशें,
  फिर शोर किसलिए ?

नेमतों को नवाजिये ,-
--   सजाइये ज़मीर को !
कुदरत को जला जला दिया,
फिर विभोर किसलिए 
उजाड़ी तुमने अराइशें,
  फिर शोर किसलिए ?

हर बुराई हमारी है,
 ----- हर दोष हमारा है ! 
बुराई को करें तमाम, 
फिर शोर किसलिए ?
उजाड़ी तुमने अराइशें,
  फिर शोर किसलिए ?
बिगाड़ी तुमने नेमतें, 
  फिर शोर किसलिए ?   

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