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Saturday, December 13, 2014

मैंने मेरी कविता बुनी एक ----  लिबास में
नन्ही अंगुलियाँ झाँकती  झीने  -- लिबास में
वक्त की करवट  अब कविता बन गयी दुल्हन
नज़ाकत है  शर्म  है छुपी नेक   --  लिबास में

कोहरे की चादर पर्वतों का लिबास बन गयी
चली शीत की धुंध नज़ारों का लिबास बन गयी
पहाड़ का जेहन तोड़ने लो आसमाँ झुक गया
बहती हुई चली नदी धरा का लिबास बन गयी

कहीं से  लिबास फटा है---- फटा ही रहने दो
घटा का खिजाब घटा है घटा ही रहने दो
ये शोर दिखावटी रहनुमाओं की भूख है
शोहरत का चाँद कटा है कटा ही रहने दो

बहर नहीं  वज्न नहीं ग़ज़ल नहीं  …  किताब  भी नहीं
काजल नहीं, महक नहीं, अलंकार नहीं .  खिताब भी नहीं
दाद तो रियाज़  अंदाज़ और अलफ़ाज़ पे मिलती है
बात नहीं तहजीब नहीं तरतीब  नही … लिबास भी नहीं

है मन में मैल और लिबास बदलने से क्या फ़ायदा
आँखों में शोखी और हिजाब बदलने से क्या फायदा
डाका, चोरी और इल्ज़ामात कई लिए हुए हैं वो
नज़र दरोगा की है निवास बदलने से क्या फ़ायदा








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