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Sunday, June 11, 2017




कोई हबीब नहीं पढ़े जो मेरी जिंदगी की किताब,
कभी बहार थी गुलिस्ता में और सुर्ख़-रु थे गुलाब !

मुझ ही से शब में उजाला, मुझ ही से बादे सबा,

बंद हुए दरीचे सभी, खुलता नहीं कोई ही बाब !

फ़िक्र -ए फ़र्दा रही हवा, चली समंदर से दश्त, 

देती है साज-ए-शिकस्ता का जहां को हिसाब !

आँखों में मदहोशी थी,लहजा था प्यार में डूबा,

ग़ुम सारे ख़्वाब हुए, अब हैं अज़ाब ही अज़ाब ! 

खोया है कलाम कि फिर तफ़्सीर लाऊँ कहाँ से !

ख़्वाब उसी का जमाल, मेरी आयत की किताब !!...''तनु ''

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