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Monday, April 13, 2015

तू ही निगहबाँ शान लिए बैठा हूँ ;
तुझसे रब्त   पनाह लिए बैठा हूँ !

दीन की जानिब  रुख कीजिये ;
मैं तस्सवुर को सम्हाल बैठा हूँ !

एहसास तकानों के सलामत रहें ;
मैं तुझी को रफ़ीक मान बैठा हूँ !

साज़ में पर्दे की खनक बाकी रहे ; 
मैं साँसों को निगाह दिए बैठा हूँ !

वक्त सदा ही रहा इम्तहानों का ; 
हर माहौल में अज़ान लिए बैठा हूँ !

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