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Sunday, May 17, 2015

प्रश्न (कोठा)


न बंधन भाँवरों का ,
ना चेहरे, 
सेहरा सजता है ?
न गाये सोहर कोई ?
ना पालने,
नन्हा सोता है !
सब होता है ,
वहाँ भी यहाँ की तरह ही ,
बस एक ही है ,
झीना सा ,
ओटा ?


अकारण ही ,
सवाल , फिर
सवालों पर सवाल ?
जब उठते जाते हैं
अपने होने का,
अस्तित्व भी
हम भूल ही जाते हैं ?
और नकार जाते हैं ,
जीवन के मूल्यों को ,
क्यों करते है ,
ओता ?


मन की आँखों की,
परिवार की
समाज की
अनैतिक इच्छाएँ,
पूरी करने तोड़
मापदंड मर्यादाएँ ,
इंसानियत
भूलकर लिहाज, 
शर्म जान कर 
कि डूबेंगे लगाने ,
गोता ?


उगे कई ?
कुकुरमुत्तों की तरह
राजनितिक सामाजिक 
आर्थिक लाभ
से सने
चढ़ा किसी को सूली
किसी को दे दंश 
सब जानते
किसकी करनी पर 
है अनबोला
बोले न कोई 
कौथा ?


विगलित तन !
विचलित मन!!
ढूंढे ठौर छाँव , ,,
आँगन बाबुल का ,
अमराई की कोयल , ,,
पकड़ा गया झूठ,  ,,
झूठ के आँगन 
सत्य गया  रूठ, ,, 
और फिर 
अलहदा से
साज पर रो रहा 
कोठा !!!


















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