प्रश्न (कोठा)
न बंधन भाँवरों का ,
ना चेहरे,
सेहरा सजता है ?
न गाये सोहर कोई ?
ना पालने,
ना पालने,
नन्हा सोता है !
सब होता है ,
वहाँ भी यहाँ की तरह ही ,
बस एक ही है ,
झीना सा ,
ओटा ?
अकारण ही ,
सवाल , फिर
सवाल , फिर
सवालों पर सवाल ?
जब उठते जाते हैं
अपने होने का,
अस्तित्व भी
हम भूल ही जाते हैं ?
और नकार जाते हैं ,
जीवन के मूल्यों को ,
क्यों करते है ,
ओता ?
मन की आँखों की,
परिवार की
समाज की
अनैतिक इच्छाएँ,
पूरी करने तोड़
मापदंड मर्यादाएँ ,
इंसानियत
भूलकर लिहाज,
शर्म जान कर
कि डूबेंगे लगाने ,
गोता ?
उगे कई ?
कुकुरमुत्तों की तरह
राजनितिक सामाजिक
आर्थिक लाभ
से सने
चढ़ा किसी को सूली
किसी को दे दंश
सब जानते
किसकी करनी पर
है अनबोला
बोले न कोई
कौथा ?
विगलित तन !
विचलित मन!!
ढूंढे ठौर छाँव , ,,
आँगन बाबुल का ,
अमराई की कोयल , ,,
पकड़ा गया झूठ, ,,
झूठ के आँगन
सत्य गया रूठ, ,,
और फिर
अलहदा से
साज पर रो रहा
कोठा !!!
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