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Friday, May 29, 2015

ये कैसी आई   है   आफत,पता नहीं ;
खुदाया वो  भी है सलामत पता नहीं!

दर - ओ - दीवार वही, जाने ना निस्बत !                   
किससे करूँ अब मैं शिकायत,पता नहीं !!

इसी बस्ती में, ------रूह पनाह लेती थी !
क्यों वो लिए बैठे अदावत , --पता नहीं !!

जख्म यादों के दिए,----- मेरी आँखों को !
आँखें  रोकर करे बगावत,---- पता नहीं !!

शब  भी  सायों  से  पनाह  माँगती  रही !
चाँद क्यों ना बन सका चाहत, पता नहीं !!

समन- ज़ार  से आबाद थी मज़ार मिरी !
''तनु'' छोड़ दी किसने शराफत, पता नहीं !!

समन- ज़ार = चमेली के फूलों से ढँकी  हुई 
निस्बत   = रिश्ता    




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