ये कैसी आई है आफत,पता नहीं ;
खुदाया वो भी है सलामत पता नहीं!
खुदाया वो भी है सलामत पता नहीं!
दर - ओ - दीवार वही, जाने ना निस्बत !
किससे करूँ अब मैं शिकायत,पता नहीं !!
इसी बस्ती में, ------रूह पनाह लेती थी !
क्यों वो लिए बैठे अदावत , --पता नहीं !!
जख्म यादों के दिए,----- मेरी आँखों को !
आँखें रोकर करे बगावत,---- पता नहीं !!
शब भी सायों से पनाह माँगती रही !
चाँद क्यों ना बन सका चाहत, पता नहीं !!
समन- ज़ार से आबाद थी मज़ार मिरी !
''तनु'' छोड़ दी किसने शराफत, पता नहीं !!
समन- ज़ार = चमेली के फूलों से ढँकी हुई
निस्बत = रिश्ता
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