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Monday, May 11, 2015




बिखर के रह गए वो ''तेरी दोस्ती'' कमाल के वो दिन;

उलझे रहते थे खुद ही में, खद्द-ओ-खाल के वो दिन!

न तू पढ़ता था न मैं, गुजारते थे वो मस्ती भरी राते; 

मकतब भी खोया, उम्र भी खोयी, उस साल के वो दिन! 

किस्म किस्म के पकवानों से, सजा हुआ है दस्तरखान; 

माँ के हाथ का ''आम का अचार'', रोटी दाल के वो दिन!

अब उसी गुलशन में, उसी तरह क्यों गुल खिलते नहीं ?

बीते जनम न कोई पूछता,  ''हाल ओ चाल'' के वो दिन!!!  






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