बिखर के रह गए वो ''तेरी दोस्ती'' कमाल के वो दिन;
उलझे रहते थे खुद ही में, खद्द-ओ-खाल के वो दिन!
न तू पढ़ता था न मैं, गुजारते थे वो मस्ती भरी राते;
मकतब भी खोया, उम्र भी खोयी, उस साल के वो दिन!
किस्म किस्म के पकवानों से, सजा हुआ है दस्तरखान;
माँ के हाथ का ''आम का अचार'', रोटी दाल के वो दिन!
अब उसी गुलशन में, उसी तरह क्यों गुल खिलते नहीं ?
बीते जनम न कोई पूछता, ''हाल ओ चाल'' के वो दिन!!!
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