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Tuesday, July 22, 2014

 न गुलों की न खारों की ही परवाह करती,
 जिंदगी का क्या वो तो यूँ भी गुजर जाती !

तुम होते तो क्या था न होते तो क्या था,
बरसने से पहले बदली यूँ भी घुमड़ जाती !

बहाया था पसीना  कभी  पानी की तरह,                     
शबनम का क्या पत्तों से यूँ भी उतर जाती!

मैं ये कहूँ वो ले के गयी मेरा सब्र ओ करार,
फायदा क्या पूछने से वो तो यूँ भी मुकर जाती !

दे अगर कोई दिलासा आंसू और बहे जाते हैं ,
दरिया ए सैलाब का क्या वो तो यूँ भी उमड़ आती ! 

ये क्या ?… सारे ग़म कौन  लेता है किसके ?
जिंदगी का क्या   वो तो यूँ भी सुधर जाती !"तनु "



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