कितने शरारों शोलों से जला हुआ हूँ ,
न तू गिन, फफोले हैं मेरे जिगर में.
सब गैर हैं और तूफान देखता हूँ ,
राहें मुख्तलिफ, एक मंज़िल है सफर में.
ये किसकी!!! इनायतों ओ रहम का दौर है,
रोती है जीस्त शाखों की भीगी सहर में.
इक फलक ही था जो इस बात का मातम करता ,
इक नदी ही थी बहाती खूनाब चश्मतर में। .... "तनु "
न तू गिन, फफोले हैं मेरे जिगर में.
सब गैर हैं और तूफान देखता हूँ ,
राहें मुख्तलिफ, एक मंज़िल है सफर में.
ये किसकी!!! इनायतों ओ रहम का दौर है,
रोती है जीस्त शाखों की भीगी सहर में.
इक फलक ही था जो इस बात का मातम करता ,
इक नदी ही थी बहाती खूनाब चश्मतर में। .... "तनु "
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