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Monday, July 7, 2014

कितने शरारों शोलों से जला हुआ हूँ ,
न तू गिन, फफोले हैं मेरे जिगर में.

सब गैर हैं और तूफान देखता हूँ ,
राहें मुख्तलिफ, एक मंज़िल है सफर में.

ये किसकी!!! इनायतों ओ रहम का दौर है,
रोती है जीस्त शाखों की भीगी सहर में.

इक फलक ही था जो इस बात का मातम करता ,
इक नदी ही थी बहाती खूनाब चश्मतर में। .... "तनु "

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