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Sunday, September 3, 2017

विसर्जन





पहले ,..प्यार में पगलाया 
मन पायल पहन हरषाया  
छूकर पहचानूँ  कैसे ??
वाणी चुप,... वह तुतलाया 
ऐसा अनूप जियारा न्यारा 
विधाता तेरा सिरजन!! 


रची एक कविता ज्यौं मन 
सतत साधना,.. है जीवन 
अनुनय विनय विचार मंथन 
टिका आशाएँ मनन चिंतन 
दृष्टि हटती नहीं उससे 
मन मोहता है परजन !!


फूला फला विशाल तरुवर 
उसकी छाया बनते रहबर 
अलंकार सी अभिव्यक्ति हो 
थाह अथाह हो जैसे सागर 
सिर हाथ धरे तो छाँह वरे 
पर्जन्य सींचे है हरजन !!


न टूटे नींद न छूटे भरम 
भले जनो के भले करम 
घुलो पानी नमक की तरह
या दूध चीनी का मिलन 
सागर समेटो अपने आँचल 
मन से पूजन मन का अर्चन !!



सागर हो गया खूब निढाल 
धो गणेश के पद विशाल
पद धोकर बाहें फैलाई 
आज नहीं मैं हूँ कंगाल 
आ समो लूँ मुझमें तुझको 
नव सृजन संग विसर्जन !!



कण कण सृष्टि का उत्सर्जित 
उत्सर्जित फिर अभिनव सर्जित 
स्वतः अर्चित , परिमार्जित 
नित विसर्जित  नित नित सर्जित 
नित विसर्जन नित सिरजन !!

... ''तनु ''









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