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Thursday, April 10, 2014

अक्स , परछाई ,  छाया  …


परछाई न हो सकी मेरी ,
क्या तेरी कभी हुई तेरी ,
अब तो पूछूं उस उपरवाले से !
क्यों बनाई बहुतेरों की बहुतेरी !!


शाम ढले लम्बी हुई  पेड़ों की छाया ,
उतर रही सागर में सूरज की माया ,
अंधकार को दूर कर अब डूब रही !
पोषित हो रही धरती की काया  !!


जिसे तू छू  न सके  है वो छाया ,
किसके स्वप्न में  है तू भरमाया !
ये अक्स है आईने में डूबा हुआ !
झूठी है माया झूठी है काया !!


आइने पर धूल हो धुंधला है ये अक्स ,
 गर टूटा है आइना टूटा है  ये अक्स !
 ज़मीर इंसा का होता है आइना ,
 धुंधला टूटा न ,  हो बेदाग ये अक्स !!












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