अक्स , परछाई , छाया …
परछाई न हो सकी मेरी ,
क्या तेरी कभी हुई तेरी ,
अब तो पूछूं उस उपरवाले से !
क्यों बनाई बहुतेरों की बहुतेरी !!
शाम ढले लम्बी हुई पेड़ों की छाया ,
उतर रही सागर में सूरज की माया ,
अंधकार को दूर कर अब डूब रही !
पोषित हो रही धरती की काया !!
जिसे तू छू न सके है वो छाया ,
किसके स्वप्न में है तू भरमाया !
ये अक्स है आईने में डूबा हुआ !
झूठी है माया झूठी है काया !!
आइने पर धूल हो धुंधला है ये अक्स ,
गर टूटा है आइना टूटा है ये अक्स !
ज़मीर इंसा का होता है आइना ,
धुंधला टूटा न , हो बेदाग ये अक्स !!
परछाई न हो सकी मेरी ,
क्या तेरी कभी हुई तेरी ,
अब तो पूछूं उस उपरवाले से !
क्यों बनाई बहुतेरों की बहुतेरी !!
शाम ढले लम्बी हुई पेड़ों की छाया ,
उतर रही सागर में सूरज की माया ,
अंधकार को दूर कर अब डूब रही !
पोषित हो रही धरती की काया !!
जिसे तू छू न सके है वो छाया ,
किसके स्वप्न में है तू भरमाया !
ये अक्स है आईने में डूबा हुआ !
झूठी है माया झूठी है काया !!
आइने पर धूल हो धुंधला है ये अक्स ,
गर टूटा है आइना टूटा है ये अक्स !
ज़मीर इंसा का होता है आइना ,
धुंधला टूटा न , हो बेदाग ये अक्स !!
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