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Tuesday, April 22, 2014

प्रभाती 



हर रात दीया ले जलती है  ………… 

हर रात दिए से चलती है !

चल कर  और जल जल कर यूं 

काली स्याह हो जाती है !!


ऊषा रंग है कर्म प्रधान ,

रच देता जीवन विधान !

रजनी काली चुपके चुपके ,

क्यों डाल देती व्यवधान  !!





काली रात के साये हैं ये , 

पथ कंटक पथराए हैं  ये ! 

कहीं डर कर खो न जाना , 

नहीं किसी को भाये हैं ये !!





मान लो……  चन्द्र तुम मेरे गले की फांस हो ,

जानता हूँ पूर्णिमा  .... पर सजे तुम ख़ास हो  !

एक ही निवाले में करूँ  !!!  भक्षण  तुम्हारा मैं.,

पर … छोड़ देता हूँ कि तुम रजनी की आस हो  !!












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