वजूद इंसान का खोखला हुआ !
अंदर ही अंदर यूँ पोपला हुआ !!
कभी ये ''वट'' की छाँव होता था ,
अपने ही नातों से बेगाना हुआ !!
नाम दोस्ती के दगा देता हुआ !
खंजर पीठ में चुभोता हुआ !!
कभी सोने सा मुहाल होता था ,
बिक रहा है छदाम होता हुआ !!
रहा ये सब्ज़बाग दिखाता हुआ !
नज़रें अपनी अपने से चुराता हुआ !!
कभी ये खेवनहार होता था ,
अब कश्ती अपनी डुबोता हुआ !!
माँ के प्यार से मातृछाया हुआ !
पिता के मान में पितृ पाया हुआ !!
कभी ये शिखाबंध रखता था ,
पहले मरण से अब मुंडन कराता हुआ !!
तोंद अपनी पे हाथ फेरता हुआ
कभी ये बाग़बाँ होता था
गुलिस्ताँ अपना उजाड़ता हुआ
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