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Monday, April 14, 2014


वजूद इंसान का खोखला हुआ !
अंदर ही अंदर यूँ पोपला हुआ !!
कभी ये  ''वट'' की छाँव होता था ,
अपने ही नातों से बेगाना हुआ !!

नाम दोस्ती के दगा देता हुआ !
खंजर पीठ में चुभोता हुआ !!
कभी सोने सा मुहाल होता था ,
बिक रहा है छदाम होता हुआ  !!

 रहा ये सब्ज़बाग दिखाता हुआ !
 नज़रें अपनी अपने से चुराता हुआ !!
 कभी ये खेवनहार होता था ,
 अब कश्ती अपनी डुबोता हुआ !!


माँ के प्यार से मातृछाया हुआ !
पिता के मान में पितृ पाया हुआ !!
कभी ये शिखाबंध रखता था ,
पहले मरण से अब मुंडन कराता हुआ  !!

अपने भार से यूँ गिरता हुआ 
तोंद अपनी पे हाथ फेरता हुआ 
कभी ये बाग़बाँ होता था 
गुलिस्ताँ अपना उजाड़ता हुआ 

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